जब निकलता हू मैं अपने घरसे

जब निकलता हू मैं अपने घरसे
मेरी आहटें तब पूछती है मुझसे
ऐ दोस्त मेरे, क्या करने चला है आज तू?
बस वही रुक पड़ते है मेरे कदम एक सोचसे,
क्या करे इस तबाही का हम!
क्यों सह ले भ्रष्ट लोगोंको हम!
क्यों ढूँढते है लोगों मैं बुराइयां हरदम
क्या खुद के घिरेबान में झाका कभी
छिपा लेते है जब अपनी गलतियाँ सभी
ना असलियत से दूर है हम
बस कहते है ”किस्मत के हाथों मजबूर है हम”
क्या मजबूरी, कैसी कमजोरी
इसी सोचसे तब घुटने लगता है दम
तभी एक आवाज़ पुकारती है हमे
सही सोच और राह दिखाती है हमे
उस सोच को पकडके चल पड़ते है हम
कुछ तो बदलाव जरुर लायेंगे ये थान लेते है हम
और तब दरवाज़े से निकलते है मेरे कदम….

One thought on “जब निकलता हू मैं अपने घरसे

प्रतिक्रिया व्यक्त करा

Fill in your details below or click an icon to log in:

WordPress.com Logo

You are commenting using your WordPress.com account. Log Out /  बदला )

Twitter picture

You are commenting using your Twitter account. Log Out /  बदला )

Facebook photo

You are commenting using your Facebook account. Log Out /  बदला )

Connecting to %s